Ashirwad Yatra : सत्ता पाने को गांव गांव घूमकर बता रहे अपने पूर्वजों की उपलब्धियां Aligarh news
--संवेदना में भी सियासत
संवेदना के समय भी सियासत ठीक नहीं। ये वो भावनाएं होती हैं, जिसे रोक पाना मुमकिन नहीं होता है। मगर, अभी पिछले दिनों सिंधु बार्डर पर अनुसूचित जाति के युवक की निर्मम हत्या पर इसपर जमकर सियासत हुई। शहर में तनिक बात पर कैंडिल लेकर शोक संवेदना व्यक्त करने वाले दिखाई नहीं दिए। अनुसूचित जाति के युवक के लिए उनके पास दो शब्द और दो आंसू भी न थे। वरना तमाम ऐसे मामले आए, जब सियासतदां तनिक सी बात पर सड़कों पर उतर आते थे। उनके लिए तो मानों यह मामले मुद्दे बन जाया करते हैं, वो लपकने के लिए तैयार रहते हैं। मगर, सिंधु बार्डर पर युवक की हत्या के बाद जिस तरह से अंतिम संस्कार में स्थिति उत्पन्न की गई, उसपर भी संवेदना नहीं जागी। कोई दल शोक संवेदना तक जताने आगे नहीं आया। भले ही अनुसूचित जाति के युवक की निर्मम हत्या पर दल मौन हों,सवाल तो उठेंगे ही।
ये पुलिस है साहब
कानपुर के मनीष गुप्ता की हत्या हो या फिर आगरा में पुलिस हिरासत में अरुण की मौत का मामला हो, भले ही इनसे प्रदेश में तांडव मच जाए, मगर पुलिस को कोई फर्ख नहीं पड़ता है। महीने दो महीने बाद ऐसी घटनाएं सामने आ जाती हैं, इन घटनाओं से पुलिस फिर भी कोई सबक नहीं लेती है। अभी पनेठी में एक मामले में दो सिपाही पहुंच गए, उन्होंने बिना वजह ही एक ठेकेदार को हड़का दिया। एक नेताजी ने पुलिस कर्मियों को रोकना चाहा, बोलें जब इनसे जुड़ा मामला नहीं है तो क्यों इनपर रौब गांठ रहे हो? नेताजी ने समझाया एक समाज से जुड़ा मामला है, अभी तिल का ताड़ हो जाएगा? मगर, पुलिस कर्मी कहां मानने वाले हैं, उन्होंने अपने सीनियर को फोन मिला दिया। नेताजी ने तसल्ली से समझाया कि जिन्हें पुलिस कर्मी फटकार रहे हैं, उनसे जुड़ा मामला है ही नहीं, तब कहीं जाकर मामला थमा, वरना यहां भी दोनों सिपाही अपना तेवर दिखा देते?
इनकी तरफ भी देखिए हुजूर
कमल वाली पार्टी में टिकट के लिए दावेदार सक्रिय हो गए हैं। क्षेत्र से लेकर प्रदेश तक उन्होंने परिक्रमा शुरू कर दी है। कोई भी मौका मिलता है पलभर में आगरा पहुंच जाते हैं। यहां से सूचना मिलती है कि लखनऊ में बड़े नेता पहुंचे हैं तो तुरंत वहां रवाना हो जाते हैं, मगर बड़े नेताओं से इस समय बमुश्किल ही मुलाकात हो पा रही है। दावेदारों का दर्द यह है कि कम से कम लखनऊ तो नहीं, मगर आगरा वाले तो उनकी बात को सुने, मगर वहां भी उनकी बात नहीं सुनी जा रही है। इन दावेदारों की बात भी सही है। क्षेत्र में रहकर इन्होंने साढ़े चार साल तक खूब पसीना बहाया है। संगठन के लिए दिन रात एक कर दिया। तमाम ऐसे नेता हैं, जिन्होंने तो पूरा जीवन संगठन को समर्पित कर दिया। उनकी तकलीफ है कि जब वह बात रखने जाते हैं तो उनकी तरफ देखा तक नहीं जाता है, ऐसा लगता है कि नेताजी ने कभी उन्हें देखा ही न हो?
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