NOI : धवल वस्त्र और चमकता ललाट उनकी जिजीविषा और कर्मठता की गवाही देते हैं। उम्र के आठ दशक पूरे करने के बाद भी कर्म पथ पर अडिग चलते रहने की दृढ़ता उनके हर शब्द में झलकती है। वर्ष 1939 में जब उनका जन्म हुआ था, तब देश भारी उथल-पुथल के दौर से गुजर रहा था। अपनी यादों को ताजा करते हुए वह कहती हैं, मेरे घर पर सरदार पटेल व गांधीजी का आना जाना लगा रहता था। मां ने एक बार तो मुझे गांधीजी की गोद में भी दिया था, यह बात आज भी रोमांचित करती है। मैं गांधीजी की वानर सेना में शामिल थी। पिता जी ने बारदोली सत्याग्रह में भाग लिया था। पूरा परिवार सेवा और संघर्ष पथ पर चल रहा था।
निरंजना बेन के अनुसार, परिवार से मिलने वाले जीवन मूल्य व संस्कार उनके सबसे बड़े संबल हैं। यही वजह है कि उन्होंने आगे चलकर बारदोली के सत्याग्रह आश्रम और नवजीवन ट्रस्ट को संभालते हुए आदिवासी लड़कियों की शिक्षा के लिए कुछ करने की सोची। इसके लिए उन्होंने गुजरात की पैदल यात्रा की। महीनों तक चलने वाली इस यात्रा में कई गुमनाम लोग मिले, जो समाज के लिए बड़े-बड़े काम कर रहे थे, बिना किसी शोर-शराबे के। इसने उन्हें और भी प्रेरित किया।
निरंजना बेन कहती हैं कि आदिवासियों के बीच जाकर उनके जीवन को करीब से देखा तो पाया कि उनके जीवन संघर्ष ही उन्हें जुझारू बनाते हैं। वह कहती हैं, लोग कहते हैं कि एक महिला इतना कुछ कैसे कर लेती है, पर मैं मानती हूं संघर्ष में महिला-पुरुष का सवाल ही नहीं। बारदोली सत्याग्रह में तो महिला-पुरुष दोनों शामिल थे और सबने साथ मिलकर संघर्ष किया। वह कहती हैं कि हम हमेशा यह याद रखें कि जीवन में आने वाली समस्याएं हमेशा के लिए नहीं होतीं, आपको कर्मपथ पर इसी आशा के साथ आगे बढऩा है कि जीत आपकी होगी।

जब मैैंने पूरे गुजरात की पैदल यात्रा की तो पाया कि केवल छह प्रतिशत बच्चियां शिक्षित हैं। आदिवासी इलाकों की हालत तो और भी खराब थी। कुछ ऐसे मां-बाप भी हैं, जो चाहकर भी अपनी बच्चियों को नहीं पढ़ा पा रहे थे। ऐसी परिस्थितियों ने उन्हें बारदोली में कन्याओं के लिए निश्शुल्क स्कूल खोलने के लिए प्रेरित किया। वर्ष 1996 में उन्होंने स्कूल की शुरुआत की।

आज भी सुबह चार बजे से निरंजना बेन की दिनचर्या शुरू हो जाती है। इस क्रम में वह बच्च्यिों के बीच रहकर उन्हें जीवन मूल्यों की शिक्षा देती हैं साथ में श्रम की ताकत के बारे में बताती हैं। अभी तक छह हजार से अधिक बच्चियां आश्रम से निकलकर अपना नागरिक कर्तव्य निभा रही हैं। वे बाद में भी कोई मुश्किल पडऩे पर आश्रम और गुरु निरंजना बेन के पास समाधान के लिए आती हैं। यह उनका परिवार बन चुका है।

यदि हम भौतिक सुख के पीछे भागेंगे तो समस्याएं पीछा नहीं छोड़ेंगी साथ ही हम जीवन को नहीं समझ पाएंगे। बच्चों में मूल्यों का विकास करने के लिए जरूरी है कि हम उनके माली बनें, मालिक नहीं। उनके विकास के लिए उनके आसपास पसरे खरपतवार को उखाड़ फेंकें। एक शिक्षक के रूप में निरंजना बेन की यह बात प्रेरणा देती है।

निरंजना बेन ने गुजराती भाषा के लिए भी काफी काम किया है। गुजराती में कई किताबें लिखी हैं। उनकी किताबों का अनुवाद भी हुआ है। स्वामी विवेकानंद के जीवनचरित के लिए उन्हें यूनेस्को ने पुरस्कृत भी किया है। उनकी एक उल्लेखनीय कृति बा और बापू पर है। अध्यवसाय को वह अंतर्यात्रा व बहिर्यात्रा के लिए एक सेतु मानती हैं। उनके अतुलनीय शिक्षण कार्य के लिए भारत सरकार द्वारा वर्ष 1989 में उन्हें राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।

निरंजना बेन की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए उनकी बेटी हैं, जो कि स्त्रीरोग विशेषज्ञा हैं और आश्रम में अपनी सेवा देती हैं। पति और गुजराती साहित्य के जाने-माने लेखक मुकुलभाई कालार्थी उनसे 20 वर्ष बड़े थे। निरंजना बेन के मुताबिक, व्यक्ति का साथ छूटता है पर विचार नहीं। मुकुलभाई ने वर्ष 1988 में ही देहत्याग दिया था, पर देश व समाज के लिए सेवा व त्याग करने वाले उनके विचार उन्हें नित आगे बढऩे की प्रेरणा दे रहे हैं।

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