आदिवासी बच्चियों को शिक्षित करने के लिए नारी शक्ति पुरस्कार से सम्मानित निरंजना बेन
जब मैैंने पूरे गुजरात की पैदल यात्रा की तो पाया कि केवल छह प्रतिशत बच्चियां शिक्षित हैं। आदिवासी इलाकों की हालत तो और भी खराब थी। कुछ ऐसे मां-बाप भी हैं, जो चाहकर भी अपनी बच्चियों को नहीं पढ़ा पा रहे थे। ऐसी परिस्थितियों ने उन्हें बारदोली में कन्याओं के लिए निश्शुल्क स्कूल खोलने के लिए प्रेरित किया। वर्ष 1996 में उन्होंने स्कूल की शुरुआत की।
आज भी सुबह चार बजे से निरंजना बेन की दिनचर्या शुरू हो जाती है। इस क्रम में वह बच्च्यिों के बीच रहकर उन्हें जीवन मूल्यों की शिक्षा देती हैं साथ में श्रम की ताकत के बारे में बताती हैं। अभी तक छह हजार से अधिक बच्चियां आश्रम से निकलकर अपना नागरिक कर्तव्य निभा रही हैं। वे बाद में भी कोई मुश्किल पडऩे पर आश्रम और गुरु निरंजना बेन के पास समाधान के लिए आती हैं। यह उनका परिवार बन चुका है।
यदि हम भौतिक सुख के पीछे भागेंगे तो समस्याएं पीछा नहीं छोड़ेंगी साथ ही हम जीवन को नहीं समझ पाएंगे। बच्चों में मूल्यों का विकास करने के लिए जरूरी है कि हम उनके माली बनें, मालिक नहीं। उनके विकास के लिए उनके आसपास पसरे खरपतवार को उखाड़ फेंकें। एक शिक्षक के रूप में निरंजना बेन की यह बात प्रेरणा देती है।
निरंजना बेन ने गुजराती भाषा के लिए भी काफी काम किया है। गुजराती में कई किताबें लिखी हैं। उनकी किताबों का अनुवाद भी हुआ है। स्वामी विवेकानंद के जीवनचरित के लिए उन्हें यूनेस्को ने पुरस्कृत भी किया है। उनकी एक उल्लेखनीय कृति बा और बापू पर है। अध्यवसाय को वह अंतर्यात्रा व बहिर्यात्रा के लिए एक सेतु मानती हैं। उनके अतुलनीय शिक्षण कार्य के लिए भारत सरकार द्वारा वर्ष 1989 में उन्हें राष्ट्रीय शिक्षक पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया था।
निरंजना बेन की विरासत को आगे बढ़ाने के लिए उनकी बेटी हैं, जो कि स्त्रीरोग विशेषज्ञा हैं और आश्रम में अपनी सेवा देती हैं। पति और गुजराती साहित्य के जाने-माने लेखक मुकुलभाई कालार्थी उनसे 20 वर्ष बड़े थे। निरंजना बेन के मुताबिक, व्यक्ति का साथ छूटता है पर विचार नहीं। मुकुलभाई ने वर्ष 1988 में ही देहत्याग दिया था, पर देश व समाज के लिए सेवा व त्याग करने वाले उनके विचार उन्हें नित आगे बढऩे की प्रेरणा दे रहे हैं।
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