जिहादियों की बेलगाम बर्बरता, कन्हैया लाल और उमेश कोल्हे की हत्या देश में सांप्रदायिक तनाव के चरमोत्कर्ष का प्रतीक
NOI :- उदयपुर में कन्हैया लाल और अमरावती में उमेश कोल्हे की हत्या देश में सांप्रदायिक तनाव के चरमोत्कर्ष का प्रतीक है। नफरत की आवाजों में समाया वैमनस्य एक कदम आगे बढ़ कर विस्फोटक रूप ले चुका है। बहुसंख्यक समाज उबल रहा है। अल्पसंख्यक वर्ग के कुकृत्यों से पीड़ित बहुसंख्यक वर्ग इस हद तक भयभीत हो चुका है कि उसे इस बात की आशंका होने लगी है कि कहीं उनका हाल बांग्लादेश में हिंदुओं की भांति न हो जाए और वे बहुसंख्यक से अल्पसंख्यक न हो जाएं। वहीं हिंदू मुस्लिम की खाई को पाटने में राष्ट्रीय राजनीति भी अक्षम दिख रही है।
इस राजनीति में न्यायालय किसी से पीछे नहीं है। उच्चतम न्यायालय अपने न्यायमूर्तियों की टिप्पणी के कारण सुर्खियों में है। वैमनस्य की इस राजनीति की जड़ें गहरी जमी हुई हैं। धर्म और राजनीति के क्षेत्र में सक्रिय शक्ति यदि समय रहते इसे दूर नहीं करती है तो भविष्य में आतंकवादियों का हित साधने का माध्यम ही साबित होगी। इतिहास साक्षी है, धर्म की आड़ में नफरत की खेती करने वाले अवयव देश विभाजन से भी नहीं चूकते हैं। टुकड़े-टुकड़े गैंग की मंशा और इनके पोषण में लगी शक्तियों के सक्रियता की कहानी किसी से छिपी नहीं है। मुगल काल में हिंदुओं को मुसलमान बनाने और मंदिरों को मस्जिद बनाने का इतिहास दुनिया जानती है। परंतु हैरत की बात यह है कि मौलाना महमूद मदनी जैसे इस्लामिक विद्वान ने जब इन मामलों को आपसी संवाद से निपटाने की उदार पहल की तो उपद्रवी तत्वों की सक्रियता बढ़ गई। ऐसे में धर्माचार्य और राजनेता इसके लिए अनुकूल जमीन तैयार कर ही देश का हित सुनिश्चित कर सकते हैं।
मुस्लिम समाज का प्रतिनिधित्व करने वाले कई लोग हालिया हिंसक घटनाओं का खुल कर विरोध कर रहे हैं। जफर सरेशवाला ‘सिर तन से जुदा’ करने की बात हराम और संगीन गुनाह की श्रेणी में रखते हैं। कट्टर, जाहिल और शैतानी मानसिकता को चिन्हित कर कमर वहीद नकवी मुस्लिम समाज में प्रगतिशील और उदारवादी विचार के व्यापक प्रसार को आवश्यक बताते हैं। हिंदू सांप्रदायिकता पर होने वाली व्यापक चर्चा के सापेक्ष मुस्लिम सांप्रदायिकता पर छाई चुप्पी पर फैयाज अहमद फैजी ने भी निशाना साधा है। इस मामले में केरल के राज्यपाल और इस्लाम के अध्येता आरिफ मोहम्मद खान मदरसों में बच्चों को दी जाने वाली शिक्षा में हिंसा की पैरवी को दोषी ठहराते हैं। अल्लाह के कानून के नाम पर ‘सिर तन से जुदा’ करने के बदले उदारता का पाठ पढ़ाना होगा। अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर जहर उगलने की निरंकुश प्रवृत्ति का दुष्परिणाम सामने है। नफरत के बोल पर रोक लगाने के लिए उच्चतम न्यायालय ने मार्च 2014 में विधि आयोग को निर्देशित किया था। आयोग की रिपोर्ट मार्च 2017 से संसद में धूल फांक रही है। इंटरनेट मीडिया के दुरुपयोग को रोकने के लिए प्रभावी कानून बनाने की दिशा में प्रयास लंबित है। दिल्ली दंगों के बाद फेसबुक और ट्वीटर जैसे इंटरनेट मीडिया प्लेटफार्म निशाने पर हैं। भारत सरकार नफरत की आवाजों पर पाबंदी लगाने के लिए आवश्यक कानून बनाने की दिशा में अग्रसर हो। सौ साल बीत रहे हैं, जब देश में शुद्धि आंदोलन के साथ सांप्रदायिक दंगे भड़के और भारतवर्ष के तमाम वरिष्ठ नेताओं ने मिलकर इस समस्या का समाधान निकाला था। उन्होंने सांप्रदायिक कुकृत्यों में शामिल होना पाप माना और इस सिलसिले में अपने ही धर्म के लोगों के विरोध में खड़ा होना भारत की पहचान बताया था। गणोश शंकर विद्यार्थी इस क्रम में बलिदान देने वाले अग्रिम पंक्ति के नायक हैं। परंतु आज एक ज्वलंत प्रश्न हमारे सामने यह है कि सौ वर्षो के बाद इस दिशा में हम कहां तक पहुंच पाए हैं।
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