अद्भुत है बाबा सिंहेश्वर महादेव की महिमा, यहां हुई थी राजा दशरथ की मनोकामना पूरी, सावन में उमड़ता है श्रद्धालुओं का रैला
मधेपुरा NOI :- बिहार में बाबा भोले की नगरी सिंहेश्वर स्थान की महिमा अद्भुत और निराली है। यह बिहार के मधेपुरा जिला मुख्यालय से लगभग आठ किमी की दूरी पर स्थित है। ऐसी मान्यता है कि इस स्थान पर भगवान शिव का दिव्य शिवलिंग स्थापित है, जो ऐतिहासिक और धार्मिक महत्व रखता है। यह वही पावन भूमि है, जहां राजा दशरथ को पुत्र प्राप्ति की मनोकामना पूरी हुई थी। यहां लाखों श्रद्धालुओं पुत्र प्राप्ति की मनोकामना लिए बाबा सिंहेश्वर महादेव के दरबार पहुंचते हैं।
लोगों की आस्था है कि बाबा के दरबार से कोई भक्त खाली हाथ नहीं लौटा है। बाबा सिंहेश्वर सबकी मुरादें पूरी करते हैं। सावन उत्सव के दौरान शिव भक्त दूर दराज से कांवर यात्रा कर सिंहेश्वर बाबा को जल अर्पण करने के लिए आते हैं। कथाओं में ये भी उल्लेख किया गया है कि यह स्थान श्रृंगी ऋषि का तपोभूमि हुआ करता था। इस स्थान पर श्रृंगी ऋषि भगवान शिव को पूजा करते थे। ऋषि ने सात हवन कुंड का निमार्ण करवाया जो आज भी मौजूद है।
पवित्र सावन माह में उमड़ती है श्रद्धालुओं की भीड़ सिंहेश्वर प्रखंड मुख्यालय स्थित बाबा नगरी अब नगर पंचायत बन चुका है। नगर पंचायत का नाम बाबा सिंहेश्वर के नाम पर ही रखा गया है। बताया जाता है कि यहां स्थापित शिवलिंग काफी प्राचीन है। सिंहेश्वर नाथ मंदिर में पवित्र सावन माह के मौके पर बाबा के दर्शन और जलाभिषेक के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालुओं की भीड़ उमड़ पड़ती है। जबकि महाशिवरात्रि के मौके पर यहां एक महीने का मेला भी लगाया जाता है। यह मेला बिहार के बड़े मेलों में से एक है। जबकि पर्यटन विभाग द्वारा तीन दिनों का सिंहेश्वर महोत्सव यहां होता है।
भगवान विष्णु के द्वारा स्थापित सिंग है बाबा सिंहेश्वर नाथ का शिवलिंग बाबा सिंहेश्वर के विषय में मान्यता है कि एक बार बाबा भोले कैलाश पर्वत से रूप बदल कर भ्रमण पर निकले। इस दौरान उन्होंने हिरण का रूप धारण कर लिया था। भगवान शिवहिरण का वेष धारण कर पृथ्वी लोक चले आए। इधर सभी देवी देवता उन्हें ढूंढने लगे इसी बीच पता चला कि भगवान शिव पृथ्वीलोक पर हैं। इधर, देवलोक में शिव के गायब होने से सभी देवता परेशान थे। ऐसे में ब्रह्मा ने अपनी दिव्यदृष्टि से उन्हें खोजना शुरू किया। उन्हें पता लगा कि भोलेनाथ हिरण बनकर धूम रहे हैं।
भगवान ब्रह्मा व विष्णु उन्हें ले जाने पृथ्वीलोक आ गए जहां हिरण तो मिला लेकिन हिरण रूपी भगवान शिव जाने को तैयार न हुए। इसपर भगवान ब्रह्मा व विष्णु ने जबरन ले जाने चाहा लेकिन हिरण गायब हो गए और आकाशवाणी हुई कि भगवान शिव आपको नहीं मिलेंगे। बताया जाता है भगवान बिष्णु के द्वारा स्थापित सिंग ही बाबा सिंहेश्वर नाथ है। इसके बाद से ही यहां शिवलिंग का एक रूप स्थापित किया गया। इसलिए इसे सिंहेश्वर नाथ कहा गया। यह शिव लिंग तीन भागों में विभक्त है।
राजा दशरथ को पुत्र प्राप्ति की मनोकामना हुई थी पूरी यहां हर मनोकामना होती है पूरी यह वही पावन भूमि है जहां राजा दशरथ को पुत्र प्राप्ति की मनोकामना पूरी हुई थी। ऐसी मान्यता है कि सिंहेश्वर स्थान का नाम श्रृंग ऋषि के नाम पर पड़ा है। ऋषि श्रृंग ने यहीं कोसी नदी के किनारे बसे इसी तपोभूमि पर राजा दशरथ के लिए पुत्रयेष्ठि यज्ञ किया था। इसी यज्ञ से प्राप्त खीर को खाने के बाद राजा दशरथ की तीनों रानियां गर्भवती हुई थीं और राम, लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न को जन्म दिया। सिंहेश्वर मंदिर से महज डेढ़ किलोमीटर पर स्थापित गांव सतोखर के सात पोखर को हवन कुंड माना जाता। चूंकि राजा दशरथ को पुत्र प्राप्ति की कामना यहीं पूरी हुई, इसलिए इसे कामना लिंग माना जाता है। दूर-दूर से लोग यहां अपनी मनोकामना खासकर पुत्र प्राप्ति की मनोकामना लेकर आते हैं।
बिहार और नेपाल के विभिन्न क्षेत्रों में प्रसिद्ध है सिंहेश्वर स्थान सिंहेश्वर स्थान में पूरे सावन माह शिव भक्तों का तांता गला रहता है। पड़ोसी देश नेपाल से भी शिव भक्त यहां भगवान शिव को पूजा अर्चना करने के लिए आते हैं। श्रावण के दौरान लगने वाला मेला बिहार और नेपाल के विभिन्न क्षेत्रों में प्रसिद्ध है। सिंहेश्वर स्थान आने पर सबकी मनोकामना पूर्ण होती है, इसीलिए इसे मनोकामना लिंग के रूप में भी जाना जाता है। यहां का मंदिर कई हजार वर्ष पुराना है।
कोसी क्षेत्र के जाने-माने इतिहासकार हरिशंकर श्रीवास्तव शलभ जी ने अपने शोध पत्र में लिखा है कि 1800 ई के शुरूआती वर्षों में लकड़ी व्यवसायी हरिचरण चौधरी द्वारा वर्तमान मंदिर का निर्माण कराया गया था। यह मंदिर कोशी के किनारे थी लेकिन कोशी ने इसे कभी नुकसान नहीं पहुंचाया। आज वर्तमान समय में भी मंदिर के उत्तर कोशी की क्षारण धारा बरसाती नदी के रूप में बहती है। मंदिर न्यास के सदस्य और वयोवृद्ध समाजसेवी 70 वर्षीय मदन मोहन सिंह कहते हैं जब से उन्होंने होश संभाला है, मंदिर को देख रहे हैं। उनके दादा भी बचपन में इस मंदिर के बारे में बताया करते थे। वे कहते हैं कि 90 के दशक तक मेले में हाथी, घोड़ा ऊंट आदि जानवर भी आते थे। यह मेला इलाके का बड़ा मेला होता था। इस मेले से लोग साल भर के जरूरी सामान खरीदते थे।
ऐतिहासिक महत्व : काफी पुराना है सिंहेश्वर मंदिर मंदिर काफी पुराना एवं ऐतिहासिक महत्व का है। मंदिर का नीचे का भाग किसी पहाड़ से जुड़ा हुआ है। शिवलिंग स्थापना के संदर्भ में कोई प्रामाणिक दस्तावेज नहीं है लेकिन इस बारे में कई किदवंती प्रचलित है। प्रचलित एक किदवंती के अनुसार कई सौ साल पहले यब क्षेत्र घने जंगल से घिरा हुआ था। यहां अगल-बगल के गोपालक अपनी गायों को चराने आते थे। एक कुंवारी कामधेनु गाय प्रत्येक दिन एक निश्चित जगह पर खड़ा होती तो स्वतः ही उसके थान से दूध गिरने लगती थी। एक दिन गोपालक ने यह दृश्य खुद देख लिया। सबों ने मिलकर खुदाई की तो शिवलिंग मिला। सिंहेश्वर में शिवलिंग है उसे किसी ने स्थापित नहीं किया बल्कि शिवलिंग स्वयं अवतरित हुए हैं। स्वयं अवतार रहने एवं देवता द्वारा निर्मित मंदिर होने के कारण कोशी के उफान में भी मंदिर ज्यों का त्यों रह गया। अंतत: नदी को ही धारा बदलनी पड़ जो नदी अब भी मंदिर से पूरब अलग हटकर नदी बह रही है। महर्षि दधिचि और राजा ध्रुत के बीच सिंहेश्वर में हुआ था अंतिम संघर्ष एक धारणा यह भी है कि शिव पुराण के रुद्र संहिता खण्ड में वर्णित महर्षि दधिचि और राजा ध्रुत के बीच अंतिम संघर्ष यहीं हुआ था। ऐसा भी कहा जाता है कि पांडवों ने विराटनगर नेपाल के भीम बांध क्षेत्र में शरण लेने के पश्चात सिंहेश्वर में शिव की पूजा की थी। मध्ययुग में मंडन मिश्र तथा शंकराचार्य का शास्त्रार्थ भी यहीं हुआ था। राजा दशरथ के लिए पुत्रेष्ठि यज्ञ करने वाले श्रृंगी ऋषि की तपोभूमि रहने की वजह से इस जगह का नाम सिंहेश्वर पड़ा। वहीं कहा जाता है कि मंदिर मरम्मती के लिए एक बार जब अभियंताओं के दल ने खुदाई की तो देखा गया कि कुछ मीटर नीचे कोई ठोस चीज है। इस वजह से खुदाई नहीं हो पा रही थी।अभियंताओं के दल ने कहा कि शिवलिंग किसी पहाड़ के अग्रभाग पर स्थित है। बताया जाता है कि इसी पहाड़ की वजह से ही कोसी के रौद्र रूप के वावजूद मंदिर को कभी कोई नुकसान नहीं पहुंचा है।
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