चित्रकूट, NOI : प्रभु श्रीराम की तपोभूमि में कोल, मवासी और गोंड जनजाति की हजारों आबादी आयुर्वेद की संजीवनी का प्राचीन ज्ञान खुद में सहेजे है, जो इसे जन-जन तक पहुंचाने में मददगार बन सकती है। विंध्य पर्वतमाला से सटे गांवों में रहने वाले कोल आदिवासी इंसान से लेकर जानवरों की बीमारियां ठीक करने में इनका इस्तेमाल अब भी कर रहे हैं। आज विश्व आदिवासी दिवस पर एक बार फिर उनकी विशेषता की चर्चा हर जुबान पर है।

कोल आदिवासी जानते हैं औषधीय पौधों का गुण

चित्रकूट के जंगलों में निर्गुंडी, हंसराज, हडज़ोड़, वन कोदरा, सहसमुरीआ, ब्राह्मी, अजान, चिनवा, कोंहारी, ढिमरबेल, वन कपास जैसे तमाम औषधीय पेड़-पौधे हैं। कोल आदिवासी इनके गुण जानते हैं। इस पारंपरिक प्रकृति ज्ञान को सहेजने की कोशिश हो तो यहां आयुर्वेदिक दवाइयों के निर्माण का बड़ा हब बनाकर जंगल सुरक्षित व संरक्षित किए जा सकते हैं। हालांकि, इससे उलट आदिवासियों के जीवन में संघर्ष की शुरुआत आजादी मिलने के बाद से ही हो गई थी। वह जंगलों से विस्थापित किए जाते रहे। पहला विस्थापन वर्ष 1978 में तब हुआ, जब रानीपुर वन्यजीव विहार बना। 23,000 हेक्टेअर से अधिक वन भूमि में हजारों कोल आदिवासी झोपडिय़ां बनाकर रहते थे।

आयुर्वेद पर काम हो तो घर पर मिले रोजगार

गढ़चपा के भैया कोल कहते हैं, उनको तीन बार विस्थापन का सामना करना पड़ा। अब स्थायी निवास बना सके है। कोल समुदाय गरीबी और शोषण के शिकार हैं। सरहट निवासी राजन कोल बताते हैं कि रोजी-रोटी की तलाश में नौजवान पलायन कर जाते हैं। आयुर्वेदिक दवाओं को लेकर काम हो तो घर पर ही रोजगार मिल जाए। टिकरिया निवासी संजो कोल ने बताया कि सूखी लकडिय़ां बेचकर जिंदगी की गुजर-बसर होती है। कर्वी, बांदा, शंकरगढ़ व सतना के बाजार में कुछ पैसे मिल जाते हैं। आयुर्वेदिक दवाएं निर्माण के लिए वनस्पतियों को खोजने का काम जिंदगी आसान कर सकता है।

इसलिए मनाते आदिवासी दिवस

23 दिसंबर 1994 को संयुक्त राष्ट्र महासभा ने विश्व के स्वदेशी लोगों (आदिवासी) का अंतरराष्ट्रीय दिवस हर साल नौ अगस्त को मनाने का निर्णय लिया था। यह स्वदेशी आबादी में जागरूकता फैलाने, उनके अधिकारों की रक्षा के लिए मनाया जाता है।

-आदिवासियों का जीवन पूरी तरह से प्रकृति पर आधारित होने से उन्हें वनस्पतियों का ज्ञान अधिक होता है। उनके ज्ञान को जड़ी-बूटी संग्रह में इस्तेमाल करने से रोजगार के साथ आयुर्वेद की संजीवनी जन-जन तक पहुंच सकेगी। -गुंजन मिश्रा, पर्यावरण विशेषज्ञ, चित्रकूट

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