नई दिल्ली, NOI :- रविवार को मिस्र के शर्म-अल-शेख में जलवायु परिवर्तन पर सभी देशों की बैठक COP 27 शुरू हो गई। जलवायु परिवर्तन आम आदमी को हर स्तर पर प्रभावित कर रहा है। एक तरफ जहां मौसम में बदलाव हो रहा है, तो दूसरी तरफ कई जीवों की प्रजातियां विलुप्त होती जा रही हैं, कई नदियों के जल सूख गए, तो प्रदूषण ने आम आदमी को सेहत से जुड़ी कई बीमारियां दे दीं।

मक्के के उत्पादन में आ रही कमी

ओजोन की परत को नुकसान पहुंचने से दुनिया में मक्के के उत्पादन में कमी आ रही है। ये खुलासा यूएस एग्रीकल्चर डिपार्टमेंट की रिसर्च यूनिट की ओर से किए गए अध्ययन में हुआ है। रिपोर्ट के मुताबिक, ओजोन की निचली परत को नुकसान पहुंचने से सूरज की बहुत-सी ऐसी किरणें धरती तक आ रही हैं, जो मक्के की पत्तियों में केमिकल संतुलन को बिगाड़ रही हैं।

मक्का, गेहूं, धान पर सबसे ज्यादा असर

बिहार कृषि विश्वविद्यालय के एसोसिएट डायरेक्टर रिसर्च प्रोफेसर फिजा अहमद कहते हैं कि क्लाइमेट चेंज ने कृषि पर बड़ा प्रभाव डाला है। इससे मक्का जैसी फसल हर हाल में प्रभावित होगी, क्योंकि वे तापमान और नमी के प्रति संवेदनशील हैं। उनके अनुमान के मुताबिक, 2030 तक मक्के की फसल के उत्पादन में 24 फीसदी तक गिरावट की आशंका है। गेहूं भी इसकी वजह से काफी प्रभावित हो रहा है। वह बताते हैं कि अगर तापमान में चार डिग्री सेंटीग्रेड का इजाफा हो गया तो गेहूं का उत्पादन पचास फीसद तक प्रभावित हो सकता है। इसके अलावा धान की पैदावार में भी गिरावट आ सकती है।

भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के क्रॉप साइंस के डिप्टी डायरेक्टर जनरल डॉ. टी.आर.शर्मा कहते हैं कि अगर ऐसे ही हालात रहे तो असर हमारी थाली पर पड़ेगा। अगर हमें अपने खाने और फसलों को बचाना है तो अनुसंधान पर लगातार खर्च करना होगा। डॉ. शर्मा कहते हैं कि क्लाइमेट चेंज का असर हर फसल पर पड़ रहा है। ठंड ज्यादा पड़ रही है, बारिश असमान हो रही है, इसका साफ असर फसलों पर देखने में आ रहा है। फसलों में नई-नई बीमारियां क्लाइमेट चेंज की वजह से हो रही हैं। बीते कुछ सालों में धान और मक्का की फसल पर इसका प्रभाव पड़ा है। हाल में हुई अधिक बारिश की वजह से पश्चिम बंगाल और उत्तर प्रदेश में धान की काफी फसल बर्बाद हुई।

गेहूं उत्पादन में 8% तक गिरावट

हाल के एक अध्ययन में पाया गया कि बढ़ती गर्मी और पानी की कमी के चलते गेहूं की पैदावार में काफी कमी दर्ज की गई है। वैज्ञानिकों ने गंगा के मैदानी इलाके वाले राज्यों में चार स्थानों पर गेहूं की पैदावार पर जलवायु परिवर्तन के प्रत्यक्ष (तापमान और वर्षा में परिवर्तन के कारण) और अप्रत्यक्ष (सिंचाई उपलब्धता में कमी के कारण) प्रभावों को बेहतर ढंग से समझने के लिए एक क्षेत्रीय जलवायु मॉडल और एक फसल मॉडल का अध्ययन किया। इन राज्यों में प्रमुख रूप से पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश और बिहार शामिल रहे। वैज्ञानिकों ने पाया कि औसत तापमान में बढ़ोतरी, वर्षा के साथ-साथ बदलते मौसम या रबी मौसम (नवंबर-अप्रैल) के दौरान अधिकतम तापमान में वृद्धि का सीधा असर फसल पर पड़ता है। जिन चार जगहों के आधार पर अध्ययन किया गया वहां तापमान बढ़ने पर पैदावार में 1% से 8% तक गेहूं के उत्पादन में कमी आई।

फसलों के प्रभावित होने का ये होगा असर

फिजा अहमद कहते हैं कि मक्के की फसल प्रभावित होने का बहुत बड़ा असर पड़ेगा। मक्के से कई सारे एग्रीकल्चर उत्पाद बनते हैं। इससे फूड प्रोसेसिंग इंडस्ट्री बुरी तरह प्रभावित होगी। वहीं गेहूं, चावल में आ रही उत्पादकता में कमी हमारी थाली को बिगाड़ सकती है। वहीं डा. टी. आर. शर्मा कहते हैं कि धान की उत्पादकता पर मौसम ने बीते कुछ सालों में कुछ असर डाला है। हमें पर्यावरण सुधारने के लिए प्रयास करने होंगे वरना मुश्किलें बढ़ सकती हैं।

पोषण में रही गिरावट

ग्लोबल वार्मिंग और अनियमित वर्षा का अनाज की पोषण गुणवत्ता पर प्रभाव दिखा पाने वाले आंकड़े पर्याप्त नहीं हैं। हालांकि, विशेषज्ञों में इस बात को लेकर सहमति है कि वातावरण में कार्बन डाइऑक्साइड की मात्रा में बढ़ोतरी के विपरीत प्रभाव होंगे, क्योंकि कार्बन डाइऑक्साइड का बढ़ा हुआ स्तर, उस प्रक्रिया में हस्तक्षेप करता है जो पौधों में प्रोटीन के संश्लेषण के लिए आवश्यक है।

अनाज की पोषण गुणवत्ता में गिरावट “छिपी हुई भूख” को बढ़ा सकती है। यह कुपोषण का ही एक रूप है, जिसमें किसी व्यक्ति को उसके भोजन से ऊर्जा की मात्रा तो पर्याप्त मिल जाती है, लेकिन उसमें आयरन और जिंक जैसे पोषक तत्वों की इतनी कमी रहती है कि यह उसके स्वास्थ्य और विकास पर नकारात्मक प्रभाव डालता है।

पोषण में गिरावट का प्रभाव

यूएन इंटर गवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) की छठी मूल्यांकन रिपोर्ट में इस बात पर प्रकाश डाला गया है कि वातावरण में CO2 का स्तर बढ़ने से हमारे भोजन की पोषण गुणवत्ता कम हो जाएगी। इसमें प्रोटीन, आयरन, जिंक और अनाज, फलों और सब्जियों में कुछ विटामिन शामिल हैं। इन महत्वपूर्ण पोषक तत्वों के बिना, अधिकतर लोगों को सूक्ष्म पोषक तत्वों की कमी का खतरा होगा, जिससे शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य की गंभीर समस्या हो सकती है। एक समीक्षा में पाया गया कि सब्जियों का सेवन कम करने से गैर-संचारी रोगों, जैसे कोरोनरी हृदय रोग, स्ट्रोक और विभिन्न प्रकार के कैंसर का खतरा बढ़ सकता है। इसके अलावा, पर्याप्त सब्जियां और फलियां न खाने से भी पोषक तत्वों की कमी हो सकती है।

खेती का पैटर्न बदलना होगा

बीएचयू के प्रोफेसर राकेश कुमार का कहना है कि खाद्य सुरक्षा को बनाए रखने और किसानों की आमदनी बढ़ाने के लिए खेती का पैटर्न जलवायु के अनुरूप बदलना होगा। भारत सरकार ने इसके लिए जिला स्तर पर कृषि विज्ञान केंद्रों की स्थापना की है, जहां कृषि जलवायु के हिसाब से उन्नत खेती का प्रदर्शन किया जाता है।

दुनिया भर में असर

भूमि और समुद्र का बढ़ता तापमान, सूखा, बाढ़ और अप्रत्याशित वर्षा पशुधन और फसलों को नुकसान पहुंचा रही है। उदाहरण के लिए, केन्या के आधे हिस्से में सूखा देश की फसल को प्रभावित कर रहा है और इसके मुख्य भोजन, मक्का का उत्पादन 50 फीसदी तक कम होने के आसार हैं। इस बीच ऑस्ट्रेलिया में बाढ़ सैकड़ों गायों के झुंड को बहा ले गई और फसलों और कृषि उपकरणों को नुकसान पहुंचा रही है। भारतीय कृषि अनुसंधान संस्थान के क्रॉप साइंस के डिप्टी डायरेक्टर जनरल डॉ. टी.आर.शर्मा बताते हैं कि पूरी दुनिया क्लाइमेट चेंज का सामना कर रही है। इटली इसका साक्षात उदाहरण है। इटली में सूखा पड़ा है जिसके बारे में सोचा भी नहीं जा रहा था।

क्लाइमेट चेंज के लिए ये हैं जिम्मेदारी

कृषि मंत्रालय के डिप्टी डायरेक्टर जनरल ए.के. सिंह कहते हैं कि यूं तो क्लाइमेट चेंज के लिए कई चीजें जिम्मेदार हैं, लेकिन सबसे बड़ा कारण कार्बन उत्सर्जन है। इस पर लगाम लगाने के लिए बड़े पैमाने पर कदम उठाए जाने की जरूरत है। इसके लिए कोल सेक्टर से होने वाले कार्बन उत्सर्जन पर खास तौर पर रोक लगानी होगी। ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन को भी कम करना होगा। एग्रीकल्चर सेक्टर में भी कार्बन उत्सर्जन पर लगाम लगाने के लिए कई कदम उठाए जाने की जरूरत है। कई सारी फसलों जैसे धान की फसल से काफी उत्सर्जन होता है। किसान जानवर पालते हैं, इन जानवरों का गोबर खुले में पड़े रहने से भी कार्बन और अन्य ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन होता है।

बारिश का असर

टी. आर.शर्मा कहते हैं कि बारिश में अनियमितता की वजह से कनक जैसी फसल की बुआई नहीं हो पाई। वहीं, धान भी बारिश के चक्कर में कुछ राज्यों में बर्बाद हुआ। प्रोफेसर फिजा अहमद भी इस बात से इत्तेफाक रखते हुए कहते हैं कि मौसम की अनियमितता फसलों को खराब कर रही है। हमें ऐसी प्रक्रिया विकसित करनी होगी कि एक हफ्ते पहले मौसम का अनुमान लगा सकें। वह कहते हैं कि हमारे पास वर्तमान में फूड सिक्योरिटी है, लेकिन हमें फर्टिलाइजर सिक्योरिटी पर भी काम करना होगा। यह समय की मांग है।

ये किए जा रहे उपाय

ए.के. सिंह कहते हैं कि जलवायु परिवर्तन का असर फसलों पर पड़ रहा है। ज्यादा गर्मी और ज्यादा कार्बन उत्सर्जन आने वाले समय में कृषि उत्पादन को भी प्रभावित करेंगे। इसको ध्यान में रखते हुए ज्यादा गर्मी सह सकने वाली फसलें विकसित की जा रही हैं। समुद्र का जलस्तर बढ़ने से तटीय इलाकों में भी फसलों पर विपरीत असर होगा। ऐसे में ज्यादा पानी के बावजूद खराब न होने वाली फसलों पर भी रिसर्च हो रही है। टी.आर. शर्मा बताते हैं कि हमारे यहां धान की कई ऐसी फसलें विकसित की गई हैं, जो 115 से 120 दिन में तैयार हो जाती हैं।

निपटने के लिए अपनाने होंगे ये तरीके

खाने की आदतों में बदलाव करना: स्वस्थ भोजन करने से जलवायु संकट से मुकाबला करने में मदद मिल सकती है। यदि उच्च कैलोरी वाले आहार और पशु-स्रोत वाले भोजन अधिक पौधे-आधारित खाद्य पदार्थ खाते हैं, तो यह उत्सर्जन को कम करने, आहार से संबंधित खतरों से मृत्यु दर को कम करने और स्वास्थ्य में सुधार करने में महत्वपूर्ण रूप से मदद करेगा।

टिकाऊ कृषि और खाद्य प्रथाओं को प्रोत्साहित करना: कृषि और खाद्य प्रक्रियाओं को अधिक जलवायु अनुकूल बनाने के कई अवसर हैं।

शाकाहार का चयन : जॉन्स हॉपकिन्स सेंटर फॉर ए लिवेबल फ्यूचर बेस्ड एट द जॉन्स हॉपकिन्स ब्लूमबर्ग स्कूल ऑफ पब्लिक हेल्थ के नए शोध के अनुसार शाकाहार का चयन जलवायु परिवर्तन को कम करने में बेहतर परिणाम दे सकता है। शोध के मुताबिक अधिकांश निम्न और मध्यम आय वाले देशों में पर्याप्त मात्रा में सेहतमंद आहार के लिए खाद्य उत्पादन में बढ़ोत्तरी करनी होगी, जिसके कारण पानी के उपयोग और ग्रीनहाउस गैस के उत्सर्जन में अधिक वृद्धि होने के आसार हैं। अध्ययन के अनुसार खाद्य उत्पादन के देश की जलवायु के लिए अलग-अलग परिणाम हो सकते हैं। उदाहरण के लिए, पराग्वे में उत्पादित गोमांस का एक पाउंड डेनमार्क में उत्पादित एक पाउंड गोमांस की तुलना में लगभग 17 गुना अधिक ग्रीनहाउस गैसों का उत्सर्जन करता है। यह अंतर चरागाह भूमि और वनों की कटाई के कारण होती है। व्यापार के पैटर्न का भी देशों के आहार संबंधी जलवायु और ताजे पानी पर महत्वपूर्ण प्रभाव होता है।

धान की खेती के तरीकों में बदलाव : इंटरनेशनल इंस्टीट्यूट फॉर अप्लायड सिस्टम एनालिसिस, लग्जमबर्ग के एनर्जी, क्लाइमेट और एन्वायरन्मेंट प्रोग्राम के सीनियर रिसर्च स्कॉलर पल्लव पुरोहित कहते हैं कि चावल, विश्व स्तर पर उगाई और खपत की जाने वाली सबसे प्रचुर फसलों में से एक है, जो वैश्विक मीथेन उत्सर्जन का 12% है - और कुल जीएचजी उत्सर्जन का 1.5% है। वृद्धि के दौरान चावल के पेडों में मीथेन उत्सर्जित करने वाले बैक्टीरिया उत्पन्न होते हैं। चावल गहनता प्रणाली (एसआरआई) पद्धति, जो दशकों से चली आ रही है, उपज बढ़ाने के साथ-साथ पानी के उपयोग और मीथेन उत्सर्जन को काफी कम करती है। हालांकि, यह अत्यंत श्रमसाध्य है और केवल अफ्रीका और एशिया में छोटे धान के खेतों में उपयोग किया जाता है। अब अनुसंधान प्रयास उस श्रम बाधा को दूर करने के लिए एसआरआई को यंत्रीकृत करने पर विचार कर रहे हैं, ताकि इसका बड़े पैमाने पर उपयोग किया जा सके।

मीथेन के उत्सर्जन को रोकना होगा : पल्लव पुरोहित के अनुसार, वर्तमान में, भविष्य की फसलों के लिए खेतों को साफ करने के लिए, किसान या तो चावल के भूसे को जलाते हैं, जिसके परिणामस्वरूप महत्वपूर्ण कार्बन होता है। डाइऑक्साइड उत्सर्जन के साथ-साथ मीथेन, कार्बन मोनोऑक्साइड, नाइट्रोजन ऑक्साइड, सल्फर ऑक्साइड और पार्टिकुलेट मैटर, या वे तेजी से क्षय को प्रोत्साहित करने के लिए क्षेत्र में बाढ़ लाते हैं - जिससे व्यापक मीथेन उत्सर्जन भी होता है। इस पर लगाम लगाने की जरूरत है।

मुश्किल में है ध्रुवीय भालू का जीवन

आपके और आपके बच्चों ने किताबों में इग्लू हाउस और पोलर बीयर की बातें पढ़ी होंगी, लेकिन हो सकता है आने वाली पीढ़ियों के लिए ये सब इतिहास की बातें हों। विशेषज्ञ इसका सबसे बड़ा कारण गाड़ियों से निकलने वाले धुएं या पेट्रोल और डीजल जैसे जीवाश्म ईंधन को मान रहे हैं। धरती का तापमान बढ़ने से माना जा रहा है कि उत्तरी ध्रुव पर पाए जाने वाले पोलर बीयर या ध्रुवीय भालू भी डायनासोर की तरह इतिहास में दर्ज हो जाएंगे। ध्रुवीय भालू का कोई प्राकृतिक शत्रु नहीं होता है। मनुष्य उनके लिए सबसे बड़ा खतरा हैं। उन्हें आईयूसीएन (IUCN) रेड लिस्ट ऑफ़ थ्रेटड स्पेशीज़ में असुरक्षित बताया गया है।

पक्षियों पर असर

यूनिवर्सिडेड डि लिस्बोआ, मोंटाना विश्वविद्यालय, दक्षिण अटलांटिक पर्यावरण अनुसंधान संस्थान और इंस्टीट्यूटो यूनिवर्सिटीरियो, रुआ जार्डिम डो ताबाको के शोधकर्ताओं ने एक अध्ययन में पाया है कि फ़ॉकलैंड द्वीप समूह पर पाए जाने वाले खूबसूरत अल्बाट्रॉस पक्षियों में अपने साथी को छोड़ने की घटनाएं बढ़ी हैं। अध्ययन में पाया गया कि तापमान में वृद्धि इन जीवों के आपसी संबंधों को प्रभावित कर रहा है। शोधकर्ताओं ने अपने अध्ययन में पाया कि सामान्य तौर पर अपना साथी चुन लेने के बाद इन पक्षियों में केवल एक से तीन फीसदी पक्षी ही एक-दूसरे का साथ छोड़ते थे। लेकिन पिछले कुछ सालों में तापमान बढ़ने से पक्षियों के अपने साथी को छोड़ने का आंकड़ा बढ़कर 8 फीसदी पर पहुंच गया है।

0 Comments

Leave A Comment

Don’t worry ! Your email address will not be published. Required fields are marked (*).

Get Newsletter

Advertisement