पाक की हरकतों को देखते हुए भारत के लिए रणनीतिक रूप से अफगानिस्तान में मजबूत होना बड़ी जरूरत
फलता-फूलता रहा है कारोबार: अफगानिस्तान और भारत को एक-दूसरे से जोड़ने में व्यापार की भी बड़ी भूमिका है। ‘काबुलीवाला’ जैसी कहानियां इन कारोबारी संबंधों की ऐतिहासिकता की गवाह हैं। भारत 3000 वर्षो से मध्य, दक्षिण एवं पश्चिम एशिया के बीच व्यापार मार्गो के जंक्शन के रूप में अफगानिस्तान के महत्व को स्वीकार करता है। भारत द्वारा जोरांग डेलाराम सड़क के निर्माण के उद्देश्यों में से एक द्विपक्षीय आíथक संबंधों में तेजी लाना है।
पाकिस्तान की बाधा: भारत-अफगानिस्तान के द्विपक्षीय कारोबार में पाकिस्तान बाधा रहा है। अफगानिस्तान से कारोबार के लिए भारत-पाकिस्तान का अटारी-वाघा बार्डर एक सुगम रास्ता है, लेकिन वह इस रास्ते कारोबार नहीं करने देता है। कराची बंदरगाह पर भी कई तरह की अनावश्यक देरी होती है, जो कारोबार को नुकसान पहुंचाती है। ईरान में बंडार अब्बास बंदरगाह के जरिये या दुबई के माध्यम से अधिकांश व्यापार होता है।
भारत सबसे बड़ा बाजार: दक्षिण एशिया में अफगानिस्तान के उत्पादों का सबसे बड़ा बाजार भारत है। भारत में अफगानिस्तान से मुख्यत: ड्राई फ्रूट और फल आयात होता है। इसमें किशमिश, अखरोट, बादाम, अंजीर, पिस्ता, सूखी खुबानी जैसे सूखे मेवे अहम हैं। अनार, सेब, चेरी, खरबूजा और हींग, जीरा व केसर भी आयात होता है।
कतर फैक्टर: दो दलीलें
पश्चिम एशियाई मामलों के जानकार कमर आगा ने बताया कि कतर ने तालिबान और अमेरिका की बातचीत में अहम भूमिका निभाई थी। तालिबान के अंदर कतर की अच्छी पकड़ है। हाल में भारत व अन्य देशों के लोगों को अफगानिस्तान से सुरक्षित निकालने में भी उसकी भूमिका रही है। एक अच्छी बात यह भी है कि कतर के साथ भारत के रिश्ते बहुत अच्छे हैं। ऐसे में कतर कई समस्याओं का समाधान निकालने में मददगार हो सकता है। इतना ही नहीं, अफगानिस्तान में भारत के हितों की रक्षा में भी कतर कारगर हो सकता है।
विदेश मामलों के जानकार सुशांत सरीन ने बताया कि कतर की भूमिका स्पष्ट नहीं है। वहां अमेरिका का सैन्य बेस भी है और तालिबान का ठिकाना भी। उसने इस्लामिक स्टेट की फंडिंग भी की है। तालिबान से उसके अच्छे संबंध हैं और पाकिस्तान भी उस पर निर्भर है। ऐसे में मौजूदा समस्या के लिए कतर को समाधान के रूप में देखना अस्पष्ट सा है। हालांकि भारत से अच्छे संबंधों के चलते यह उम्मीद है कि वह भारत के हितों की रक्षा में मददगार हो सकता है।
बड़े धोखे हैं इस राह में
अफगानिस्तान को लेकर रणनीति के मामले में भारत ने चार दशक में दो बार महाशक्तियों पर भरोसे का खामियाजा भुगता है।
सोवियत संघ का किया था समर्थन: पिछली सदी के नौवें दशक में जब तत्कालीन सोवियत ने अफगानिस्तान में कदम रखा था, तब भारत ने उसका समर्थन किया था। गुट निरपेक्षता की नीति से हटते हुए तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी ने यह फैसला किया था। जनवरी, 1980 में संयुक्त राष्ट्र महासभा की आपात बैठक में भारत के स्थायी प्रतिनिधि ब्रजेश मिश्र ने यह कहते हुए सोवियत के कदम का समर्थन किया था कि अफगानिस्तान में कुछ बाहरी ताकतें स्थिति बिगाड़ रही हैं। उनका इशारा पाकिस्तान और अमेरिका की ओर था। हालांकि 1989 में अचानक सोवियत ने अफगानिस्तान से बाहर निकलने का फैसला कर लिया। यह भारत के लिए बड़ा झटका था। अफगानिस्तान गृह युद्ध में फंस गया और कुछ साल बीतते-बीतते तालिबान का कब्जा हो गया।
अब अमेरिका का साथ देना बना मुश्किल का सबब: सोवियत के जाने के एक दशक बाद 2001 में अमेरिका ने अफगानिस्तान पर हमला किया। तत्कालीन हालात को देखते हुए भारत ने इसे सही माना। अमेरिका के आने से अफगानिस्तान में हालात सामान्य हुए और भारत ने वहां कई परियोजनाओं में निवेश बढ़ाया। 2011 में अफगानिस्तान के तत्कालीन राष्ट्रपति हामिद करजई ने भारत के साथ विशेष रणनीतिक समझौते पर हस्ताक्षर किए थे। यह इसलिए भी अहम था, क्योंकि करजई ने पाकिस्तान के साथ ऐसा समझौता करने से इन्कार कर दिया था। अब अमेरिका के वहां से हटने और तालिबानियों का कब्जा भारत के लिए झटका है।
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