NOI: जान बोल्टन अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के बहुत ही विश्वासपात्र रहे हैं। करीब डेढ़ वर्ष तक वह राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार भी थे। इस दौरान दोनों में मतभेद इतने बढ़ गए कि बोल्टन को त्यागपत्र देना पड़ा। मतभेद का एक कारण यह भी था कि ट्रंप अफगानिस्तान से पिंड छुड़ाना चाहते थे, जबकि बोल्टन इससे सहमत नहीं थे।

इन्हीं जान बोल्टन से जर्मनी के एक प्रमुख मीडिया हाउस द्वारा साक्षात्कार में यह पूछे जाने पर कि अफगानिस्तान में 20 वर्षो तक अमेरिकी सैनिकों की तैनाती क्या काफी नहीं थी? उन्होंने कहा, ‘20 साल भला क्या होते हैं? बर्लिन दीवार गिरने तक हम जर्मनी में 45 साल रहे हैं। हम अब भी जर्मनी में हैं। मध्य यूरोप में अमेरिका की मौजूदगी पारस्परिक सामरिक रणनीति के हित में है। यही दक्षिण कोरिया और जापान पर भी लागू होता है। मध्य एशिया में भी हमें ऐसा ही करना चाहिए था।’

उल्लेखनीय है कि द्वितीय विश्वयुद्ध समाप्त हुए 76 वर्ष हो चुके हैं, पर नाटो के बहाने जर्मनी में अब भी लगभग 35 हजार अमेरिकी सैनिक तैनात हैं। वर्ष 2019 में ट्रंप 12 हजार अमेरिकी सैनिक जर्मनी से हटाना चाहते थे, पर रूस से भयभीत जर्मनी के विरोध के कारण उन्हें अपना निर्णय बदलना पड़ा। जापान में अमेरिकी सैनिकों की संख्या करीब 50 हजार व दक्षिण कोरिया में 30 हजार है। चीन के विस्तारवादी स्वभाव के कारण ये दोनों देश नहीं चाहते कि अमेरिका अपने सैनिक वहां से हटाए। उनकी अधिकांश जनता भी ऐसा ही चाहती है।

जान बोल्टन स्वीकारते हैं कि वास्तव में अमेरिकी जनता का बहुमत ‘अफगान से अमेरिकी सैनिकों की वापसी’ चाहता था। पर उनका मानना है कि अमेरिकी राष्ट्रपतियों ने यदि जर्मनी-जापान का उदाहरण देकर जनता को समझाया होता तो आज काबुल में हालात इस तरह नहीं होते। अफगान जनता को ‘राष्ट्र निर्माण’ जैसे सब्जबाग दिखाने के बदले सच्चाई बतानी चाहिए थी कि हम उसके देश को ‘मध्य एशिया का कोई आदर्श नमूना’ बनाने नहीं आए हैं। हमें कहना चाहिए था कि अफगानिस्तान में हम ‘अमेरिका और पश्चिमी (नाटो) गठबंधन के सुरक्षा हितों की रक्षा’ करने आए हैं।

न्यूयार्क के वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर 2001 में अल कायदा ने यदि हमला नहीं किया होता और उस समय की तालिबान सरकार ने उसके आतंकियों को अपने यहां छिपाया नहीं होता, तो अमेरिका को वहां जाना भी नहीं पड़ा होता। बोल्टन ने यह भी कहा कि अफगान में अमेरिका की उपस्थिति इस काम भी आई कि परमाणु कार्यक्रम चला रहे और समस्या बन गए उसके दो पड़ोसी देशों, पाकिस्तान और ईरान के बारे में हर प्रकार की जानकारी मिलती रहे। उन्होंने स्वीकार किया, ‘हमारी (गुप्तचरी) क्षमता अब बहुत घट जाएगी।’

इस इंटरव्यू में भले ही भारत का नाम नहीं लिया गया, तब भी बोल्टन ने बेबाकी से तालिबान, पाकिस्तान और ईरान के बारे में जो बातें कहीं वे भारत के लिए अमेरिका से भी अधिक महत्वपूर्ण हैं। शिया पंथी ईरान को अमेरिका ने तिकड़ में भिड़ा कर अभी तक तो परमाणु शक्ति बनने से रोक रखा है, पर क्या वह सुन्नी पंथी पाकिस्तान और तालिबान के बीच ऐसी कोई साठगांठ होने को भी रोक पाएगा? पाकिस्तान यदि परमाणु शक्ति बनने में उत्तरी कोरिया की सहायता कर सकता है और एक समय लीबिया के तानाशाह गद्दाफी की ओर भी हाथ बढ़ा चुका है, तो क्या वह तालिबान को ठोकर मार पाएगा? तालिबान की शिक्षा-दीक्षा पाकिस्तान में ही तो हुई है। आतंकवाद के ये दोनों पुजारी ‘चोर चोर मौसेरे भाई’ हैं। चीन और पाकिस्तान के बाद भविष्य में कभी ईरान और तालिबान के अफगानिस्तान का भी परमाणु शक्ति बन जाना, यूरोप और अमेरिका से अधिक भारत के लिए चिंताजनक विषय होना चाहिए।

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