अफगानिस्तान में भारत की राजनीतिक एवं कूटनीतिक इच्छाशक्ति की परीक्षा | न्यूज़ आउटलुक
NOI : अफगानिस्तान से अमेरिकी सैनिकों के वापस जाने के नफा-नुकसान का आकलन अब किताबी कसरत है। हालांकि इसमें भारत के लिए एक सीख जरूर है। 31 अगस्त को अपने संबोधन में अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडन ने दोहराया था, मैं ऐसा युद्ध अब और नहीं चाहता जो हमारे लोगों के हित में नहीं है। इसका सीधा संदेश है कि अंतरराष्ट्रीय स्तर पर कुछ भी करते समय सामने राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता में रखना चाहिए। एक समय अमेरिका ने भारत पर दबाव डाला था कि वह अपने सैनिक अफगानिस्तान में भेजे। कहा जाता है कि तत्कालीन उप प्रधानमंत्री लालकृष्ण आडवाणी और विदेश मंत्री जसवंत सिंह इस पर सहमत हो गए थे। हालांकि प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने इस पर कदम खींच लिए और हमारे कई सैनिक अकारण बलिदान होने से बच गए। अगर ऐसा होता, तो यह बड़ी गलती होती।
आज यह बात स्पष्ट हो गई है कि अमेरिका का मिशन केवल अफगानिस्तान में आतंकियों को खत्म करना था। इसमें भारत के हितों का कोई मूल्य नहीं था, क्योंकि भारत का हित पाकिस्तान में आतंकी ठिकानों को ध्वस्त करने में है। यह अजीब बात ही है कि पाकिस्तान की धूर्तता के बावजूद अमेरिका और ब्रिटेन पाकिस्तान को समाधान का हिस्सा मानते हैं। दुनिया के लिए यह कोई रहस्य नहीं है कि इस्लामिक कट्टरपंथ के आंदोलनों को ताकत देने में पाकिस्तान की अहम भूमिका रही है। इस बार चीन n भी अपने पैसे के साथ सामने आया है और पैसे की कमी से जूझ रहे तालिबान ने बिना वक्त गंवाए चीन को अपना सबसे महत्वपूर्ण सहयोगी बता दिया है।
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